उच्चकोटि के दार्शनिक एवं भारतीय संस्कृति एवं दर्शन के व्याख्याता के रूप में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय दर्शन में सर्जनात्मक मानववाद के प्रणेता प्रो0 देवराज का जन्म 03/06/1917 ई0 में उत्तर प्रदेश के रामपुर कस्बे में हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक (1936) एवं वेदान्त शास्त्री और व्याकरण मध्यमा की शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने दर्शनशास्त्र में एम0ए0 और डी0 फिल्0 (1942) की उपाधि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की। इनके शोध उपाधि का विषय ‘Sankara’s Theory of Knowledge’ है। अपने अध्यापकीय जीवन की शुरूआत उन्होंने (आरा) बिहार से की और तदन्तर लखनऊ विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए (1948-60)। इसी अवधि में उन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय से ‘दर्शन एवं संस्कृति’ विषय पर डी0 लिट्0 की उपाधि प्रदान की गई।
1960 ई0 में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शियाजी गायकवाड़ प्रोफेसर ऑफ इण्डियन सिविलाइजेशन एण्ड कल्चर पद पर नियुक्ति हुए जहाँ अपनी सेवा निवृत्ति पर्यन्त दर्शनशास्त्र के उच्चानुशीलन अध्ययन केन्द्र का निर्देशन करते हुए अपनी दार्शनिक साधना को उत्कर्ष प्रदान किया। इसके अतिरिक्त वे अमेरिका के हवाई विश्वविद्यालय तथा सागर विश्वविद्यालय (मध्य प्रदेश) में अतिथि भी रहे। भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् एवं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान-शिमला के फेलो के रूप में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के अध्यक्ष (जयपुर अधिवेशन) और इण्डियन फिलॉसिफिकल कांग्रेस के जनरल प्रेसीडेण्ट (1972) के पद को भी उन्होंने सुशोभित किया तथा विभिन्न कालावधियों में दार्शनिक त्रैमासिक, आन्विक्षिकी, युग चेतना एवं युग साक्षी जैसी पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे। दर्शनशास्त्र के हिन्दी एवं आंग्ल भाषीय इतिहासपरक पुस्तकों के अतिरिक्त अपने सर्जनात्मक मानववादी चिन्तन के विभिन्न कल्प एवं सोपान के रूप में उनकी महत्त्वपूर्ण कृत्तियाँ-संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, भारतीय संस्कृति : महाकाव्यों के आलोक में दर्शनः स्वरूप, समस्याएँ एवं जीवन-दृष्टि, दर्शन, धर्म-अध्यात्म और संस्कृति, दि फिलॉसफी ऑफ कल्चर : एन इन्ट्रोडक्शन ऑफ इण्डिया, ‘हिन्दुइज्म एण्ड क्रिश्चियनिटी, फिलॉसफी रेलीजन एण्ड कल्चर, हिन्दुइज्म एण्ड मार्डन एज, टूवार्डस ए थ्योरी ऑफ परसन एण्ड अदर एस्सेज, फ्रीडम क्रियेटिविटी एण्ड वैल्यु, ह्यूमेनिज्म इन इण्डियन थाट, लिमिट्स ऑफ डिससग्रेमेन्ट ऐन इण्ट्रोडक्शन टू शंकर थ्योरी ऑफ नॉलेज इत्यादि है। इसके अतिरिक्त तीन ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है- अ सोर्स बुक ऑफ शंकर, भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास और भारतीय दर्शन।
प्रो0 देवराज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दर्शन के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के महान कवियों और लेखकों में इनकी गणना की जाती है। डॉ0 नगेन्द्र और डॉ0 हरदयाल द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में इन्हें मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार माना गया है। इनके उपन्यास ‘अजय की डायरी’ और ‘पथ की खोज’ तथा काव्य संकलन ‘इतिहास पुरुष’ और ‘उपालम्भ पत्रिका’ छायावाद का पतन’ ने इन्हें हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में शीर्ष स्थान प्रदान किया। इन सबके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य में इनकी अनेक कृत्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं- भीतर का घाव, दोहरी आग की लपट, हम वे और आप, रोड़े और पत्थर, बाहर-भीतर, दूसरा सूत्र, न भेजे गए पत्र (उपन्यास); प्रणय-गीत, जीवन-रश्मि, धरती और स्वर्ग, उर्वशी ने कहा, इला और अमिताभ, सुबह के बाद, आहत आत्माएँ, ऋतुचक्र (काव्य-संकलन); प्रतिक्रिया, साहित्य समीक्षा और संस्कृतिबोध (आलोचना) इत्यादि।
प्रो0 देवराज प्राप्त देह से न्यूनाधिक रूप में अपना काम पूरा करके 11/09/1999 (लखनऊ) में इस दुनिया से विदा ले गये। इन्हें अपने रचनाकर्म और कृत्तियों पर अनेकों पुरस्कार और प्रशंसा मिली।
प्रो0 देवराज के अनुसार सृजनात्मक मानववाद या संस्कृति-दर्शन का केन्द्र मनुष्य है, न कि ईश्वर। मनुष्य की सृजनात्मक प्रक्रिया का दर्शन हमें प्राकृतिक व्यवस्था को बदलने में तथा उसकी सौन्दर्यात्मक अभिरूचि में होता है। मनुष्य बाह्य घटनाओं के प्रति अपनी प्रतिक्रिया विभिन्न ढंगों से व्यक्त करता है। अपने छात्र-जीवन में वेस्टरमार्क की ‘एथिकल रिलेविटी’ से प्रभावित प्रो0 देवराज अपने दर्शन द्वारा उनके द्वारा उठायी गयी समस्या ‘मूल्यों की सापेक्षिकता’ का समाधान ढूंढने का प्रयत्न करते हैं। इस क्रम में वे पाश्चात्य मानववाद और भारतीय आदर्शवाद का समन्वय करने की कोशिश करते हैं। एक ओर प्रो0 देवराज लेमाण्ट और शिलर के चिन्तन का विवेचन कर अधिक संतोषजनक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी ओर वे कोरे आदर्शवाद का भी खण्डन करते हैं। उनका संस्कृति- दर्शन प्रकृतिवाद एवं आदर्शवाद के मध्य एक नवीन दर्शन की स्थापना करता है। प्रकृतिवाद के स्थूल एवं सीमित दृष्टिकोण का खण्डन कर वे मनुष्य की धार्मिक अनुभूति के कारण उसे विश्व-मानव के स्तर पर ला खड़ा करते हैं। मनुष्य अपने क्षुद्र स्वार्थों का त्याग कर मानवता के विस्तृत आयाम को अपनाता है। इनकी प्रमुख चिन्तनपरक रचनाओsं में प्रामाणिक मूल्यबोध और जीवन-विवेक को पाने या विकसित करने का प्रयत्न मिलता है।